आंत के बैक्टीरिया का व्यवहार समझाने के लिए नया शोध
नई दिल्ली: एक नए अध्ययन से ई-कोलाई और कीमोटैक्सिस जैसे जटिल पहलुओं को समझने की संभावनाएं और बेहतर हुई हैं। अभी तक यह समझना मुश्किल रहा है कि मानवीय आंत में उपस्थित जीवाणु प्रवासी (बैक्टीरियल रेजिडेंस) यानी ई-कोलाई कैसे आगे बढ़ता है या रासायनिक क्रियाओं के प्रति उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है। ई-कोलाई मानवीय जठर तंत्र (गेस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक्ट) में उपस्थित विभिन्न रसायनों के प्रति कीमोटैक्सिस की क्षमता प्रदर्शित करता है।
मानव आंत में मौजूद बैक्टीरिया ई-कोलाई का रसायनों के प्रति आकर्षित अथवा दूर होने की घटना को केमोटैक्सिस कहा जाता है।कोशिका परकिसी पदार्थ की पहचान कोशिका की सतह पर मौजूद रिसेप्टर्स द्वारा की जाती है।कोशिकाएं रासायनिक क्रिया करती हैं। केमोटैक्सिस के सकारात्मक और नकारात्मक दोनो प्रकार के प्रभाव हो सकते हैं। ई कोलाई मानव और पशुओं के पेट में पाया जाने वाला जीवाणु (बैक्टीरिया) है। इसके अधिकतर प्रारूप हानिकारक नहीं होते, लेकिन कुछ किस्मों के कारण डायरिया और उल्टी जैसे संक्रमण होने का खतरा होता है। केमोटैक्सिस की मदद से ई-कोलाई बहुत कम सांद्रता वाले रसायन के प्रति भी अपनी प्रतिक्रिया दे सकते हैं।
आंत में रसायनों के प्रति ई-कोलाई की प्रतिक्रिया मानवीय आंत के परिचालन-संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।वैज्ञानिकों ने ऐसी परिस्थिति का पता लगाया है जो सबसे बेहतरीन केमोटैक्सिसप्रदर्शन के लिए सबसे अनुकूल है। नए अध्ययन से रासायनिक संकेतों के प्रति ई-कोलाई के व्यवहार की पड़ताल करने में मदद मिलेगी।
प्रकृति में कई जीव अपने पर्यावरण या परिवेश से प्राप्त रासायनिक संकेतों को शारीरिक गति या केमोटैक्सिस के रूप में दिखाकर प्रतिक्रिया करते हैं। एक शुक्राणु कोशिका केमोटैक्सिस का उपयोग करके डिंब का पता लगाती है। इसी प्रकार घाव भरने के लिए आवश्यक श्वेत रक्त कोशिकाएं घाव या स्राव का पता कीमोटैक्सिक के माध्यम से ही लगाती हैं। चाहे तितलियों द्वारा फूलों का पीछा करना हो या फिर नर कीटों द्वारा अपने लक्ष्य पर निशाना लगाना, इन सभी में कीटोमैक्सिस का ही उपयोग होता है। स्पष्ट है कि कीमोटैक्सिस को समझकर हम कोशिका के भीतर विभिन्न स्थितियों की बेहतर जानकारी हासिल कर सकते हैं। केमोटैक्सिस की मदद से ही ई-कोलाई बहुत कम सांद्रता वाले रसायन के प्रति भी अपनी प्रतिक्रिया दे सकते हैं।
इस अध्ययन में यह दर्शाया गया है कि क्लस्टर का आकार बढ़ते ही संवेदन में भी बढ़ोतरी होती है जिससे कीमोटैक्टिक प्रदर्शन में सुधार होता है। लेकिन बड़े समूहों के लिए उतार-चढ़ाव भी बढ़ता है और अनुकूलन की शुरुआत होती है। सिग्नलिंग नेटवर्क अब अनुकूलन मॉड्यूल द्वारा नियंत्रित होता है और सेंसिंग की भूमिका कम महत्वपूर्ण होती है जिससे प्रदर्शन में कमी आती है।
यह अध्ययन एसएन बोस नेशनल सेंटर फॉर बेसिक साइंसेज के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है। शोधार्थियों की टीम का नेतृत्व शकुंतला चटर्जी ने किया है और यह शोध अध्ययन फिजिकल रिव्यू ई (लैटर्स) में प्रकाशित भी हुआ है। (इंडिया साइंस वायर)